कबीर साहेब सन 1399 ई0 में शिशु रूप में काशी के लहरताला तालाब में जनश्रुति के अनुसार नीरू.नीमा जोलाहा दंपत्ति को मिले और उन्हीं द्वारा पाले-पोषे गये। आप अपने छुटपन से ही प्रखर बुद्धि के एवं चिंतनशील थे। शायद आपने स्वामी श्री रामानंद को अपना गुरु माना हो, परंतु आपका अपना वास्तविक गुरु स्वयं का विवेक था। आप आजीवन ब्रह्मचारी एवं विरक्त संत के रूप में रहे। आपने सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक तीनों क्षेत्रों में आंदोलन किया। आपने मानव मात्र की एक जाति बताया, मानवता एक धर्म बताया तथा आत्मा को ही परमात्मा कहा। अपने आप पर संयम की कड़ाई तथा दूसरे प्राणियों के प्रति दया तथा प्रेम का बरताव - इन दोनों आचरणों को आपने अपने जीवन में उतारा तथा समाज को इसी की सीख दी। आपके व्यक्तित्व में कवि, सुधारक, क्रांतिकारी आदि अनेक रूप उभरे किन्तु आपका सबसे बड़ा रूप परमार्थ.लीन संत का है। इसीलिए आप भारतवर्ष में संत.शिरोमणि के रूप में मान्य हैं और आपका यह रूप विश्व में विख्यात है।
कबीर की यात्रा
अनेक कवियों तथा लेखकों ने कबीर साहेब का भ्रमण गुजरात, राजस्थान, पंजाब, बलख बुखारे, उत्तराखंड, मगध, वैशाली, बंग, आसाम, उड़ीसा, मध्यभारत, कर्नाटक तथा अन्य दक्षिणी भारत में चित्रित किया हैं। काशीवासी ज्ञानी श्री गुरुचरण सिंह जी ने कबीर साहेब के भ्रमण-क्षेत्र का एक मानचित्र बनाया है, जिसमें उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तथा प्राचीन भारत से लेकर आसाम के साथ नेपाल, काबुल, ईराक, ईरान, अरब आदि सम्मिलित किया है। कबीर साहेब ने स्वयं बीजक में कहा है-
देश विदेशे हौं फिरा, गांव-गांव की खोर ।। बीजक साखी-316।।
सद्गुरु कबीर की महान रचना सद्ग्रंथ बीजक है। ‘‘मसि कागद छूवों नहीं, कलम गहों नहिं हाथ’’ (साखी 187) इसको पढ़कर कितने लोग इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि कबीर साहेब ने तो कलम.कागज छुआ ही नहीं, अतः बीजक उनकी रचना नहीं, किन्तु परिवर्तियों की है।’’ परंतु यह धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण है। उन्हांेने यदि ‘ मसि कागद ’ नहीं छूआ तो मुख से कहते गये और उनको शिष्य जन लिपिबद्ध करते गये। बीजक सद्गुरु कबीर के हृदय से निकले खरे ज्ञान का कोष है। अपनी प्रिय पुस्तक का ‘बीजक’ नाम आपने स्वयं रखा है, यथा-
बीजक बित्त बतावै, जो बित गुप्ता होय।
ऐसे शब्द बतावै जीव को, बूझै बिरला कोय द्यद्य रमैनी 37 द्यद्य
बीजक में- रमैनी, शब्द, ज्ञानचैंतीसा, विप्रमतीसी, कहरा, बसंत, चाचर,, बेलि बिरहुली, हिंडोला और साखी ग्यारह प्रकरण है। बीजक में कबीर का स्वरूप क्रांति.द्रष्टा, युग प्रहरी, समाजोन्नायक, लोक चतुर, दार्शनिक, आत्मज्ञानी और महाकवि का उभरता है।
बीजक के अतिरिक्त साखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथावली, संत कबीर तथा गुरुग्रंथ में संकलित कबीर वाणियों में भी कबीर साहेब की धारदार वाणियां तथा भाव हैं, परंतु उनमें प्रक्षेप काफी हैं।
1. सत्य
सत्य ही परमतत्व है। सत्य को धारण करना ही मानव की मानवता है। सत्य में स्थित होना ही हमारा परम उद्देश्य है। इसलिए सद्गुरु कबीर सत्य ही की सर्वोपरि प्रतिष्ठा करते हैं। सत्य अपना स्वरूप है। उसका ज्ञान और उसमें स्थिति तभी हो सकती है जब हम अपने मन, वाणी तथा कर्म में सर्वतोभांति से सत्य की प्रतिष्ठा करें। सद्गुरु का आदेश है -
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हृदया सांच है, ताके हृदया आप = साखी 334 =
सांचे श्राप न लागे, सांचे काल न खाय।
सांचहि सांचा जो चलै, ताको काह नशाय = साखी 308 =
सांचा सौदा कीजिए, अपने मन में जानि।
सांचे हीरा पाइये, झूठे मूलहु हानि = साखी 65 =
2. परम तत्व जीव
यह चेतन जीव ही परम तत्व है। सारी कलाकल्पनाएं, सारे ज्ञानविज्ञान इसी के हैं। जीव ही ईश्वर, ब्रह्म, देवी.देवता तथा भूत.प्रेत की कल्पना करने वाला तथा वेद, बाइबिल, कुरान आदि का रचने वाला है। अतः जीव ही सर्वोपरि है। शरीर बदल जाता है किंतु जीव अविनाशी होने से वह कभी नहीं मरता। वह नित्य जीवित (निर्विकार सत्तायुत) रहता है। आप कहते हैं -
अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भया सब लोय।
कहहिं कबीर कामों नही, जीवहि मरण न होय = रमैनी साखी 10 =
जीव किसी का न अंश है न अंशी, न कारण है न कार्य, न व्याप्य है न व्यापक। जीव से बड़ा पद अन्य है ही नहीं।
नाना मत के लोग जीव को तुच्छ कहते हैं। परंतु यदि जीव तुच्छ है, तो श्रेष्ठ कौन है? यह मनुष्य जीव ही परोक्ष.ईश्वर, बह्म, देवी.देवता आदि की कल्पना करता है। यही सारे ग्रंथों का रचयिता तथा ज्ञान.विज्ञान का स्रोत है। कबीर साहेब ने कहा ‘‘अपने गुण को अवगुण कहहू। इहै अभाग जो तुम न बिचारहू (बी0 रमैनी 65)।’’
उन्होंने कहा ‘‘नर नारायण रूप है, तू जनि जाने देह।’’ अतएव ब्रह्म, ईश्वर, खुदा, गाॅड, राम.रहीम, परमात्मा आदि शब्दों की चरितार्थता मनुष्य की निज मूल सत्ता में ही है जो शुद्ध चेतन है, निर्विकार, निर्मल और अविनाशी है। अतएव वासना त्यागकर अपने चेतन स्वरूप में स्थित हो जाना जीवन का फल है
3. जगत जड़ और चेतन दो वस्तु नित्य हैं। जड़ में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तत्व हैं। चेतन नाना और पृथक पृथक हैं। इन दोनों में गुण.धर्म अनादि हैं और उनके गुणधर्म से जगत की स्थ्तिि भी अनादि है संसार के नाना मतावलंबियों द्वारा जगत उत्पत्ति के विषय में विभिन्न कल्पनाएं हैं परंतु वे विवेकयुक्त नहीं प्रतीत होतीं। कुछ नहीं से कुछ का पैदा हो जाना असंभव है। सद्गुरु कबीर कहते हैं--‘‘तहिया होते पवन नहीं पानी,तहिया सृष्टि कौन उत्पानी।।’’ रमैनी 7 ।। जब पहले पवन, पानी आदि नहीं थे तब उस समय सृष्टि कौन उत्पन्न कर दिया ?
पहले बीज है कि वृक्ष, मुर्गी है कि अंडा, पुरुषार्थ है कि प्रारब्ध, इसका उत्तर यही है कि बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज, मुरगी से अंडा और अंडा से मुरगी, पुरुषार्थ से प्रारब्ध और प्रारब्ध से पुरुषार्थ अनादि काल से होते आये हैं। इस प्रकार यह संसार आरम्भ रहित अनादि काल से चला आया है और अनंत की ओर गतिशील है। जड़-चेतनात्मक जगत को छोड़कर जगत के कारण और कर्ता की खोज करना एक भ्रम है।
4. माया
सद्गुरु कबीर ने मन के मोह को माया कहा है; संसार के प्रति जो मोह है वही माया है । वे कहते हैं ‘‘मन ही माया की कोठरी है, माया मन में समायी हुई है, इसलिए माया मन का स्वरूप बन गई है, परंतु त्रिगुणी जीवों को माया के विषय में संशय है कि वह कहीं ऊपर बैठी है और सिर पर कूद पड़ती है और उससे तरा नहीं जा सकता। मैं किसको-किसको पुकार कर कहूं कि माया कहीं बाहर नहीं, वह मन में स्थित संसार का मोह है’’। मूल वचन इस प्रकार है--
मन माया की कोठरी। (साखी 104)
मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।
तीन लोक संशय पड़ी, मैं काहि कहौं समुझाय = साखी 105 =
मन में जो वासना, काम, क्रोध, राग, द्वेष, तृष्णा आदि भरे हैं, यही तो जीव को छलते रहते हैंै, अतएव यही माया है। विवेक द्वारा इसका नाश होना स्वाभाविक है। मन का मोह मिट जाने पर माया शेष नहीं रहती। अभिप्राय है कि मन की मलिनता ही माया है और इसकी शुद्धि ही मायातीत होना है।
5. षर्म
हम मजहब या मत को धर्म कहने लगते हैं। मजहब या मत में अच्छी.बुरी, सत्य-असत्य सभी प्रकार की बातें हो सकती हैं और उसको धर्म नाम देकर जब हम लोगों पर थोपने लगते हैं तब अन्याय होता है। हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, इसाई धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, कबीर पंथ धर्म, नानक धर्म आदि शब्द अत्यंत भ्रामक हैं। ये सब मत-मजहब हैं, धर्म नहीं। मत-मजहब से लड़ाइयां हो सकती हैं ,धर्म से नहीं। परंतु जब मत-मजहब को ही धर्म कहा जाने लगता है तब धर्म का नाम बदनाम होता है। धर्म शाश्वत है, नित्य स्थिर है, मत-मजहब बदलने वाले हैं ।
मत-मजहब, समाज, संप्रदाय आदि किसी देश और किसी काल में बनते हैं उनके नियम, चिह्न, पारिभाषिक शब्द, संस्कारादि किसी महापुरुष या तात्कालिक सामाज द्वारा निर्धारित होते हैं। समय-समय से उनमें परिवर्तन, परिवर्धन भी होते हैं, परंतु धर्म मनुष्य की अंतरात्मा का विषय है वह सदैव अक्षुष्ण रहता है। कबीर साहेब कहते हैं ‘‘जिसके हृदय में धर्म बसता है वह राम कसौटी से अपने आप को कसता रहता है’’। सदा धर्म जाके हृदया बसई, राम कसौटी कसतहि रहई। (बी0 रमैनी 64)
‘राम कसौटी’ है अंतरात्मा की आवाज। इसके अनुसार चलना ही धर्म है।
जब दो आदमी इकट्ठे हों ,तब एक दूसरे के दुख को कम करने का प्रयत्न करें, यही धर्म है। दूसरे को दुखी देखकर द्रवित हो जाना और बन सके तो उसके दुख को दूर करने का प्रयास ही धर्म है। पूजा-नमाज और राम-रहीम शब्द साम्प्रादायिक हैंै अतः धर्म इनमें सीमित नहीं कर सकते। साम्प्रादायिक शब्दों में धर्म को सीमित करने वालों से सद्गुरु कबीर पूछते हैं--‘‘जब बांग, नमाज, कलमा, संध्या, पूजा, राम, रहीम आदि शब्दों का प्रचलन नहीं था तब धर्म था कि नहीं’’ - बांग निमाज कलमा नहिं होते, रामहुं नाहिं खुदाई। (बीजक शब्द 22)
वस्तुतः धर्म सदा से है और सदा रहेगा। अतएव सच्चा धर्म सभी मत.मजहब.संप्रदायों से परे हैं सारतः जिससे मनुष्य को शांति मिले वही आचरण धर्म है।
6. पुनर्जन्म
जीव जड़ से सर्वथा पृथक तथा नित्य पदार्थ हैं। वे अनादि काल से वासना-वश जन्म-मृत्यु के चक्कर में घूम रहे हैं। आज जीव प्रत्यक्ष शरीरधारी हैं तो निश्चित ही पहले भी शरीरधारी रहे हैं। शरीर के संस्कारों के बिना आज शरीर धारण नहीं कर सकते। आज हमारे जीवन में जो कुछ है, वह आज का ही नहीं अपितु पूर्व जन्मों का भी फल है। कोई सर्वांग निर्बल है कोई बलवान, कोई बुद्धिहीन है कोई बुद्धिमान, कोई कुरूप है कोई सुरूप, कोई जिस काम में हाथ लगाता है प्रायः विफल होता है, कोई प्रायः सर्वत्र सफल --यह सब अपने पूर्वजन्मों के संस्कार ही हैं। जीवों की ऊंच-नीच स्थितियों का समाधान न अंधी प्रकृति में हैं न तानाशाह ईश्वर में; इसका समाधान स्वकर्मों के भोग तथा पुनर्जन्म में ही है।
सद्गुरु कबीर पुनर्जन्म प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ‘‘यह कर्मों का संस्कार भ्रमहिण्डोला है जो जीवों को कभी ऊंची तथा कभी नीची योनियों में ले जाता है। यह भ्रम.हिण्डोला अत्यंत भ्रमणशील है, थोड़ा भी नहीं रूकता।’’ जीव जो कर्म कर लेता है, उनके फल उसे भोगने ही पड़ते हैं। सुर, नर, मुनि, देवता- सात द्वीप तथा नौ खण्ड में रहने वाले समस्त जीव अपने किये का फल भोगते हैं। कर्मों का लिखा करोड़ों युगों में भी बिना भोगे मिट नहीं सकता। यथा--
कबहंुक ऊंचे कबहुंक नीचे, स्वर्ग भूत ले जाय।
अति भरमित भरम हिंडोरवा, नेकु नहीं ठहराय = बी0 हिण्डोला 2 =
सुर नर मुनि औ देवता, सात द्वीप नौ खंड।
कहहिं कबीर सब भोगिया, देह धरे को दंड = बी0, साखी 295 =
कर्म का लिखा मिटै धौं कैसे, जो युग कोटि सिराई = बी0 शब्द 110 =
7. वेद-कितेब
सद्गुरु कबीर किसी पुस्तक को स्वतः प्रमाण नहीं मानते, परंतु यह नहीं कहा जा सकता कि वे वेदों को नहीं मानते। ‘‘वेद कितेब कहा किन झूठा, झूठा जो न बिचारे’’ (बीजक शब्द 97)। हां! वे, वेद-किताब को आकाशीय मानकर उन्हें पूजना नहीं चाहते क्योंकि किसी पुस्तक को ईश्वरीय वाणी मानकर पोथी पूजने वालों ने लाखों को तलवार के घाट उतारा है, दूसरों को नास्तिक, काफिर एवं नापाक कहा है। जब किसी पुस्तक को ईश्वर की वाणी या स्वयंभू मान लिया जाता है तब उसकी सही बातों के साथ मिथ्या बातें भी अनुगामियों के गले मढ़ जाती हैं।
प्रायः लोग चर्चा करते हैं कि कबीर साहेब वेदों को नहीं मानते या उनका खंडन करते हैं । यह समझना सरल है कि कबीर संत हैं और उच्चतम संत हैं। संत किसी सत्य को न मानें या उसका खंडन करें, यह संभव नहीं है। यह तथ्य है कि कबीर सत्य के उपासक हैं। वे परंपरा की तथ्यहीन बातों में चिपकते नहीं हैं, अपितु उनका निर्भय होकर खंडन करते हंै। कबीर का यही निरालापन है और यही उनका कबीरत्व है।
कबीर साहेब के सामने दो परंपरायें थीं, आर्य और सामी। वे आर्य-परंपरा के धर्मशास्त्रों को वेद के नाम से और सामी परंपरा के धर्मशास्त्रों को किताब या कितेब के नाम से याद करते हैं। दोनों परंपराएं अपने धर्मशास्त्रों को दैवी मानती थीं और उनके आधार पर जो मन में आता था उसका प्रतिपादन करती थीं। जैसे दैववाद, चमत्कार, अंधविश्वास, अवतारवाद, पैगंबरवाद, मानवता की एकता को तोड़ने वाला भेदभाव, देव और ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए वध और कुर्बानी के नाम पर निरीह प्राणियों की हत्या आदि और उनके अनुयायी कहते थे कि यह सब हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है। कबीर साहेब कहते थे कि मैं ऐसे धर्मशास्त्रों को नहीं मानता जिनसे मानवता, सत्य, करुणा आदि मानवीय ज्ञान और सद्गुणों की उपेक्षा और हत्या हो। इसी भावना पर वे बोल पड़ते हैं--
वेद कितेब के दोउ फंद पसारा। तेहि फंदे परु आप बिचारा। (बीजक,शब्द,32,पंक्ति 8)
वेद किताब के दो जाल फैलाकर लोग उनमें स्वयं उलझे हैं।
पढ़ें वेद और करें बढ़ाई, संशय गांठि अजहुं नहिं जाई।। (बीजक, रमैनी 31,चैपाई 3)
वेद पढ़ते हैं और बढ़ाई हांकते हैं; परंतु संशय की गांठ आज भी नहीं छूटती।
उपर्युक्त कथनों की तरह कुछ पंक्तियां और मिल जायेंगी। इनको आप खंडन समझें या इनकी मार्मिकता में प्रवेश कर संत के निष्पक्ष तत्व-विवेक को ग्रहण करें और उससे सत्य का निर्धारण करें। यह आप पर निर्भर है।
वेद कितेब के मंडन एवं समर्थन में उनके वचन देखें--
अंध सो दर्पण वेद पुराना। दर्बी कहा महा रस जाना।। (बी0, रमैनी 32/1)
अंधे के लिए दर्पण बेकार है ,वैसे विवेकहीन के लिए वेद पुराण बेकार हैं। करछुली व्यंजनों के महान रस को क्या जाने? वैसे वाचिकज्ञानी शास्त्रों से क्या लाभ ले सकता है?
वेद कितेब कहा किन झूठा, झूठा जो न विचारे।। बीजक, शब्द 97।।
वेद-किताब को झूठा कौन कहता है, झूठा तो वह है जो उन पर विचार नहीं करता है।
कबीर साहेब कहते हैं कि वेद-किताब सबको आदर दो, परंतु उनकी वाणियों पर विचार करो। अमुक शास्त्र में लिखा है, इसलिए न मान लो, किन्तु जो युक्ति-युक्त हो, कारणकार्य व्यवस्थानुकूल हो, तथ्य हो, सबके लिए कल्याणकारी हो, उसको मानो। जो सत्य होगा वह सबके लिए कल्याणकारी होगा। कोई बात इसलिए न मानो कि उसे बड़े महापुरुष ने कहा है, प्रसिद्ध तथा मान्य शास्त्र में कहा है, उसे बहुत बड़ी जनसंख्या मानती हैं तथा वह बहुत पुरानी है। किन्तु इसलिए मानो कि वह सत्य है। यदि सत्य नहीं है तो वह कहीं भी लिखा हो और किसी ने भी कहा हो तो न मानो।
8. उपासना
सद्गुरु कबीर ने मूर्ति पूजन को स्वीकार नहीं किया है, उन्होंने मूर्ति-पूजा का निषेध करके संत और गुरु की पूजा पर जोर दिया है। आप कहते हैं ‘‘तेहि साहेब के लागहु साथा, दुई दुख मेटि के होहु सनाथा’’ (बीजक, रमैनी 75) ऐसे स्वामी की उपासना करो, जिससे तुम सारे दुखों से मुक्त होकर स्वयं कृतकृत्य एवं पूर्णकाम हो जाओ। आग की उपासना करने पर गर्मी मिलती है, पानी की उपासना करने से ठंड़ी, विषयी लोगों की उपासना करने से अर्थात संग-साथ एवं उनसे प्रेम करने से मन में विष विकार बढ़ते हैं और वैराग्य-वान बोधवान संतों की उपासना करने से मन निर्मल होकर चिरंतन शांति मिलती है। इसलिए प्रथम उपासनीय बोध-वैराग्य सम्पन्न संत-गुरु हैं और अंततः तो अपना स्वरूप ही उपासनीय है। शुद्धचेतन जिसे हम राम या आत्मा आदि भी कहते हैं वह मेरा स्वरूप है। देहाभिमान छोड़कर अपने शुद्ध चेतन स्वरूप में स्थित होना ही जीवन का लक्ष्य है।
सद्गुरु कबीर कहते हैं ‘‘कर विचार विकार परिहर तरण-तारण सोय। कहहिं कबीर भगवंत भजु नर दुतिया और न कोय (बीजक,शब्द 60) जो विचार पूर्वक विकारों का परित्याग करता है वही तरण है और वही तारण है। वह स्वयं मुक्त है तथा दूसरों को मुक्ति की तरफ प्रेरित करने वाला है। मोह-माया एवं विषयासक्ति विकार हैंै तथा सब प्रकार की हिंसा विकार हैं। जो इन्हें सर्वथा छोड़ दे वही तो तरण.तारण है, वही तो सद्गुरु है। कबीर साहेब कहते हैं विषयासक्ति और हिंसा को त्यागे हुए ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न सद्गुरु भगवान को भजो उनकी सेवा करो, उनकी उपासना करो उनके अलावा तुम्हारा अन्य पथ.प्रदर्शक नहीं है। विकारों को जीते हुए मनुष्य रूप में सद्गुरु होता है वही भगवान है, वही कल्याणार्थियों का रक्षक है।
9. अंधविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियां
धर्म के नाम पर झूठी बातें खूब चलती हैं। एक राजनेता, वकील तथा व्यापारी जितना झूठ नहीं बोलता उतना झूठ एक धर्माधिकारी बोलता है। दूसरे लोग तो लुक-छिप कर झूठ बोलते हैं और यदि पकड़ जायें तो कानूनन दंड भी पा सकते हैं परंतु धार्मिक कहलाने वाले लोग धर्म की गद्दी पर बैठ कर हजार के बाजार में घोषणा पूर्वक झूठ बोलते हैं, और उनके एक-एक बड़े झूठ पर फूल उछाल कर तथा उनका जय बुलाकर उनका स्वागत किया जाता है। उनकी पूजा तथा आरती की जाती है। इसलिए सद्गुरु कबीर कहते हैं कि ‘‘झूठेहि जनि पतियाउ हो सुनु संत सुजाना (बीजक शब्द 3)
अशिक्षित ही नहीं विद्वान भी उसी प्रकार नादान हैं। अंधविश्वास और भ्रांति धारणा में पंडित और मूढ़ एक समान हैं। मिथ्या विश्वास में पड़े हुए अनपढ़ जितना नादान है पढ़ा-लिखा भी उतना ही। अशिक्षित तो केवल मिथ्या विश्वास को मन में जमाये रहता है; परंतु शिक्षित अनेक युक्तियों तथा वैज्ञानिक हथकंडों से मिथ्या धारणाओं को सत्य सिद्ध करता है।
सद्गुरु कबीर कहते हैं भूत-प्रेत, झाड-.फूंक, मंत्र-तंत्र-यंत्र सब मनःकल्पना की सृष्टि है। लग्न-मुहूर्त और शकुन-अपशकुन मानकर भला-बुरा होने की मान्यता भी भ्रम है। अतएव इन भ्रांतियों से रहित होना चाहिए। सद्गुरु कहते हैं--
मंत्र तंत्र सब झूठ है,मत भरमो जग कोय।
सार शब्द जाने बिना, हंसा गया बिगोय = साखी ग्रंथ =
ये भ्रम भूत सकल जग खाया, जिन्ह जिन्ह पूजा ते जहंड़ाया।
अंड न पिंड न प्राण न देही, कोटि कोटि जीव कौतुक देही = बीजक, शब्द 115 =
कुछ भोले लोग चमत्कार को आध्यात्मिक शक्ति मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि सारे चमत्कार केवल छल-कपट के प्रयोग होते हैं। वाचा-सिद्धि का ढोंग करने वाले तथा चमत्कार का झांसा देने वाले चालाक हैं और उनमें फंसने वाले भोले हैं। साहेब कहते हैं--
काहू के वचनहिं फुरे, काहू कारामाती।
मान बड़ाई ले रहे, हिंदू तुरुक जाती =
बात ब्योंते असमान की, मुद्दति नियरानी।
बहुत खुदी दिल राखते, बूड़े बिन पानी =
कहहिं कबीर कासों कहौं, सकलो जग अंधा।
सांचे से भागा फिरे, झूठे के बंदा = बीजक, शब्द 113 =
10. मानवीय एकता
वर्ण, जाति, मत, मजहब को लेकर अपने को बड़ा तथा दूसरे को छोटा कहना बहुत बड़ी भूल है। इस दूषित भावना को दूर करके एकता की महान आवश्यकता है। सद्गुरु कबीर ने इस विषय पर बहुत कहा है, प्रमाण तो थोड़ा ही पर्याप्त है । आप कहते हैं --‘‘मनुष्य जाति एक है, उसकी मौलिकता में अंतर करना संभव ही नहीं है। एक ही मानव माता पिता से सभी मनुष्यों की उत्पत्ती हुई, फिर किस समझ से ब्राह्मण आदि वर्ण स्थिर हो सकते हैं ?
एकै जनी जना संसारा, कौन ज्ञान से भया निनारा।। बी0 र0 1।।
मनुष्य अपने गुण.कर्मों से तो ऊंच-नीच हो सकता है किन्तु जन्म से ऊंच-नीच नहीं हो सकता। काली-पीली गायंे दुहकर उनके दूध एक पात्र में रखे जायं तो वे दोनों सफेद हैं; इसी प्रकार काले.गोरे मनुष्यों की मौलिकता में भी कोई भेद नहीं है। यथा--
जो तू ब्राह्मण ब्राह्मणी को जाया, और राह दे काहे न आया ।
जो तू तुरुक तुरुकनी को जाया, पेटहि काहे न सुन्नति कराया ।।
कारी पियरी दुहहु गाई, ताकर दूध देहु बिलगाई ।। (बी0 62)
सभी मनुष्यों की एक ही प्रकार त्वचा है, एक ही प्रकार हड्डी, मल, मूत्र, रक्त एवं मांस है और एक ही प्रकार के वीर्य.बूंद से मानवीय सृष्टि की रचना है, फिर कौन ब्राह्मण है और कौन शूद्व !
मनुष्य केवल मनुष्य है, लेकिन आज भी इस मिथ्या वर्ण एवं जाति का भूत सर्वत्र व्याप्त है। केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ही नहीं; अग्रवाल, कायस्थ, कुर्मी, जायसवाल, यादव, जाट, सिक्ख आदि जो जहां जमें हैें दूसरे को घुसने नहीं देना चाहते। शुद्ध मानवता के विकास के लिए मिथ्या वर्णाभिमान और जातिवाद छोड़ना ही पड़ेगा।
समस्त मानवों की एक जाति है इस बात को हमें अपने चित्त में जमा लेना चाहिए। महा मानवतावादी सद्गुरु कबीर की यह बातें हमें याद कर लेना चाहिए -
‘‘एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूद्वा ।’’
‘‘कहहिं कबीर राम रमि रहिये, हिन्दू तुरुक न कोई।’’(बी0 श0 75।।
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सद्गुरु कबीर ने कहा है ‘संतो सहज समाधि भली’ हे संतो! सहज समाधि अच्छी होती है।
सहज समाधि के दो रूप हैं; एक व्यवहार काल की तथा एक अभ्यास काल की। व्यवहार काल की सहज समाधि है खाते-पीते, काम-धंधा करते, हंसते-बोलते हर समय निर्विकार मन का रहना; और अभ्यास काल की सहज समाधि है जब साधक सारी कियाएं छोड़कर संकल्पों को भी छोड़ देता है। यह निर्विचार दशा है। अतएव व्यवहार काल की सहज समाधि है निर्विकार रहना और अभ्यास काल की सहज समाधि है निर्विचार रहना।
किसी महापुरुष के चित्र में, बंद दृष्टि में, स्वर में, नाद में, बिंदु में, मन को एकाग्र करना किया योग है। पहले इसकी आवश्यकता है, परंतु आगे चलकर आलंबन न लेना, कोई नक्शा न बनाना, अपितु नक्शा बनाने वाले मन को ही शून्य कर देना सफलता है। चित्र, दृष्टि, स्वर आदि में मन ठहराकर समाधि अभ्यास करना असहज समाधि है, क्योंकि इसमें मन की अवधारणा रहती है, परंतु जहां मन की सारी अवधारणा समाप्त हो गयीं और मन भी समाप्त हो गया वहां शुद्ध चेतना एवं शांति रह जाती है। तो यह सहज समाधि है।
आलंबन वाली समाधि में विभिन्नता है । किसी साधक का आलंबन कुछ है तथा किसी साधक का आलंबन कुछ है, परंतु जहां सारे आलंबन समाप्त कर दिये जाते हैं वहां एकता है। चाहे कितने साधक हों चित्त शून्य होने पर सबकी दशा एक है।
सद्गुरु कबीर व्यवहार काल की सहज समाधि का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब से गुरुकृपा हुई और अपनी दृष्टि अपनी ओर घूमी तब से मनोवृत्ति का भटकना बंद हो गया । अब मैं जहां-जहां डोलता हूं मानो परिक्रमा करता हूं और जो काम करता हूं मानो पूजा करता हूं। जब जीवन पूरा निर्मल हो जाता है तब इसके सारे कर्म पूजा बन जाते हैं। जब सोता हूं मानो दण्डवत करतता हूं। अब मेरा रात दिन का यही धंधा हो गया है जहां तक मन में आत्मभिन्न बातें आयें, हटाते जाना। मन में किसी विकार के आने की गुंजाइश ही न रहने देना यही मेरी निरंतर की साधना है।
इस सहज साधना में न आंख मूंदना है, न कान रुंधना है और न काया को कष्ट देना है, अपितु खुले नेत्रों से प्राणी मात्र को हंस-हंसकर आत्मरूप पहचानना है। मैं सब प्राणियों में उसी चेतन का सौंदर्य देखता हूं। उसके बिना तो सब मुरदा है। यही सच्ची सगुण उपासना है। प्राणी मात्र को अपने समान समझकर सुन्दर व्यवहार बरतना सगुण भगवान की सेवा करना है। ये प्राणी ही सगुण भगवान हैं।
मन मलिन वासनाओं का त्याग करके ज्ञान के वचनों में निरंतर लीन है। यह ऐसी समाधि लगी है कि उठते.बैठते कभी नहीं छूटती है। जब निर्मोहता निरंतर पक्की हो गयी तब सब समय समाधि है।
कबीर साहेब कहते हैं कि यह सहज साधना की रहनी है। यह केवल पूजा की जगह में नहीं किन्तु खेत, खलिहान, दतर, कारखाने, सड़क आदि यावत कार्य क्षेत्र में भी एकरस चल सकती है । मन को देखने और उसे निर्विकार रखने का काम सब जगह सब समय किया जा सकता है । चित्त की पूर्ण शांति परम पद है और संसार के सुख.दुख से परे है और अनंत सुख प्रद है ।
संतो सहज समाधि भली।
जहं जहं डोलौं सो परिकरमा जो कुछ करौं सो पूजा।। कबीर भजनावली।।
सत्य नित्य शाश्वत सनातन और त्रिकालातीत होता है। उस सत्य को समझने व्याख्यायित करने एवं प्राप्त करने के लिए समय-समय पर अनेकानेक दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ है। और सभी अपने अपने ढंग से सत्य की व्याख्या की है। अनेक भेद-प्रभेद होते हुए भी समस्त दार्शनिक पद्धतियों को मुुख्य रूप से तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है या उनके मुख्य तीन भेद किये जा सकते हैं-- 1.जड़ाद्वैत वाद अर्थात भौतिक वाद 2. चेतनाद्वैत वाद और 3. विवेक वाद।
सद्गुरु कबीर का पारख सिद्धांत तीसरा विवेक वाद का समर्थक है। इसके अनुसार जड़चेतन की अपनी-अपनी नित्य सत्ता है। दोनों एक दूसरे से सर्वथा भिन्न गुणधर्मी हैं। इसलिए न जड़ से चेतन की उत्पत्ति हुई है न चेतन से जड़ की। दोनांे आदि अंत रहित अनादि अनंत है। पारख का अर्थ होता है परख करना, छानबीन एवं विचार करना, कसौटी करना। जो सिद्धांत किसी सारासार की परख करता है। किसी बात, घटना, वस्तु तथा मान्यता को परख कर स्वीकारता है। और निर्णय देता है वह पारख सिद्धांत कहलाता है। सद्गुरु कबीर पारख सिद्धांत के प्रथम आचायर्, अधिष्ठाता एवं प्रवर्तक हैं। परखने वाले को पारखी कहा जाता है। सद्गुरु कबीर सच्चे पारखी संत हंै। कबीर साहेब से पारख सिद्धांत अक्षुन्न रूप से चला आ रहा है और पूरे कबीर पंथ में पारख सिद्धांत परक मनन-चिंतन एवं पठन-पाठन होता चला आ रहा है। इस सिद्धांत के प्रचारक और मानने वाले संत पारखी कहलाते हैं। सद्गुरु कबीर ने अपनी मुख्य रचना बीजक में पारख एवं पारखी संतों की महिमा बतायी है। लेकिन कहीं एक पंक्ति में भी पारख का खंडन नहीं हुआ है। सद्गुरु कबीर की दृष्टि में घट-घट वासी हृदय निवासी चेतन जीव ही ईश्वर एवं ब्रह्म है।
सद्गुरु कबीर बीजक में कहते हैं - हे रमैया राम तुम सत्य असत्य की परख कर लो। जिन्होंने सत्यासत्य की परख नहीं किया वे चाहते तो लाभ हैं परंतु वे अपने मूलधन स्वरूप-विवेक को खो बैठते हैं।
संसार में नग और पाषाण (गुण और दोष) सर्वत्र हैं, परंतु इनकी परख (परीक्षा) करने वाला बिरला हैं। नग से भी उत्तम उसका पारखी होता है। जो संसार में बिरले होते हैं। पारख के बिना मनुष्य बुद्धिहीन हो गया है इसलिए कौन साधु है और कौन चोर है इसकी पहचान नहीं होता। सच है पारख के बिना सबका बिनाश हो रहा है। इसलिए हे मनुष्य! तू विचार करके असत्य से अलग हट जा। मैं तो उस मनुष्य की प्रशंसा करता हूं जो सार-असार से परिचित है या उसको परखने वाला है। यदि तुम निजतत्व वास्तविकता, सार-सत्य को पाना चाहते हो तो सार-असार शब्दांे की परख कर लो। इसके लिए तुम बहुत बोलना छोड़कर पारखी संतों की संगत करो और गुरुमुख शब्दों पर विचार करो। तुम्हारा हृदय ज्ञानरूपी रत्नों की कोठरी है, उस पर मौन का ताला लगा दो। और जब उन रत्नों के ग्राहक सत्यासत्य के पारखी मिलें तब उनके सामने मीठे वचन रूपी कुंजी से उन रत्नों को खोलो।
वस्तु कहीं अलग हो और खोज कहीं अलग की जाय तो कैसे मिलेगी? वह मनुष्य प्रशंसनीय है, जो अपने साथ परख रखता है और सार वस्तुु को परख लेता है। आत्मा राम रूपी रत्न सबके हृदय में है, परंतु लोग उसका रहस्य नहीं जानते, जिन्हें परख है, वह उसे जड़बंधनों से छुड़ा लेता है। सत्य सनातन चेतन अपने आप को भूल गया है और उसकी यह भूल उसे खा रही है अर्थात भटका रही है। अपने आपकी भूल के कारण मुनष्य ईश्वर, ब्रह्म, मोक्ष, सुख-शांति को बाहर खोजता है। उसकी यह भूल तभी मिटेगी जब उसे पारखी गुरु मिलेंगे और परख लखा देंगे।
उक्त भाव पूरे बीजक में आदि से अंत तक सांस की तरह समाया हुआ है। मूल वचन इस प्रकार हैं-
परखि लेहु खरा खोट हो रमैया राम। (बीजक, बेलि)
खरा खोट जिन नहिं परखाया।
चाहत लाभ तिन्ह मूल गमाया।।(बीजक रमैनी 80)
नग पाषाण जग सकल है, पारख बिरला कोय।
नग ते उत्तम पारखी, जग में बिरला होय।।(बीजक साखी 290)
साहु चोर चिन्हें नहीं, अंधा मति का हीन।
पारख बिना बिनाश है, कर विचार होहु भीन।।(बीजक साखी 159)
बलिहारी तेहि पुरुष की, जो परचित परखन हार। (बीजक साखी 132)
जो चाहो निज तत्व को तो शब्दहि लेहु परख। (बीजक साखी
जिभ्या केरे बंद दे, बहु बोलन निरुवार।
पारखी से संग करु, गुरु मुख शब्द विचार।।(बीजक साखी 82)
ज्ञान रतन की कोठरी चुम्बक दीन्हों ताल।
पारखि आगे खोलिये, कूंजी वचन रसाल।।(बीजक साखी 254)
वस्तु अंतै खोजै अंतै क्यों कर आवै हाथ।
सज्जन सोई सराहिये जो पारख राखे साथ।।(बीजक साखी 246)
गांठि रतन मर्म नहिं जाने, पारख लीन्हा छोरी हो।(बीजक 6)
भूल मिटै गुरु मिले पारखी परख देहिं लखाई।
कहहिं कबीर भूल की औषध पारख सबकी भाई।(बीजक 115)
हम पारख सिद्धांत को पचीस सूत्रों में संक्षिप्ततः कह सकते हैं। वे इस प्रकार हैं--
1 जड़ और चेतन दो वस्तुएं अनादि और अनंत हैं।
2 जड़ --पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश पांच तत्व हैं। पहले के चार द्रव्य हैं और आकाश गुण.धर्म रहित केवल शून्य है।
3 चेतन --असंख्य हैं। वे व्याप्य .व्यापक रहित एकदेशी, एक.दूसरे से भिन्न तथा जड़ से सर्वथा पृथक हैं।
4 पूथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु -- चार तत्वों में उनके गुण, धर्म, शक्ति, किया, आकार तथा परस्पर मेल-- ये छह भेद स्वभावसिद्ध अनादि और अनंत हैं।
5 असंख्य चेतन अनादि, नित्य, अजर, अमर, असंग, पारख रूप, ज्ञान रूप तथा स्वरूपतः शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वरूप हंै; परंतु वे अनादि वासनावश अनादि काल से जन्म.मरण के प्रवाह में घूम रहे हैं।
6 जगत की सृष्टि जड़ तत्वों के स्वभावसिद्ध गुणधर्मादि से प्रवाहरूप अनादि-अनंत हंै। जो जीव मानव.शरीर में स्वरूपबोध प्राप्त कर जड़.वासनाओं का त्याग कर देता है, वह सदैव के लिए विदेहमुक्त हो जाता है। शेष सृष्टि सदैव चला करती है।
7 सृष्टि का कोई अलग से कर्ता नहीं, किन्तु वह जड़-चेतन के गुण धर्मांे से स्वतः है।
8 वृक्षए वनस्पतियां केवल जड़.तत्वों के गुण-धर्मों एवं बीजी असर से उत्पन्न होते हैं और वे सर्वथा निर्जीव हैं।
9 जीव मानव शरीर में जो कुछ शुभाशुभ कर्म करते हंै, उनके फल वे आज या आगे.आगे जन्मों में भोगते हैं।
10 संतों की संगत, सद्गुरु के उपदेश तथा स्वतः विवेक से जड़-चेतन की भिन्नता का ज्ञान होता है।
11 शुद्ध शाकाहार, मन, वाणी, कर्मों की शुद्धि, दया, क्षमा, शील, विचार, विवेक, वैराग्य, गुरुभक्ति, संतोष, शम, दम आदि शुभ रहनी से चलना मानवता है और यही मनुष्य धर्म है।
12 स्वरूपस्थिति एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए शुद्ध ब्रह्मचर्य धारण एवं विषयवासना की सर्वथा निवृत्ति अपेक्षित है।
13 सद्ग्रंथों का स्वाध्याय, सत्संग, सद्गुणों एवं स्वस्वरूप का चिंतन और वैराग्यवान सद्गुरु.संतों का ध्यान तथा अंततः मन का द्रष्टा होकर संकल्पों को छोड़.छोड़ कर अपने आप शांत हो जाना --यह साधना का क्रम है।
14 व्यवहारकाल में अनासक्ति तथा समाधिकाल मेें संकल्पहीनता-- स्वरूपस्थिति तथा जीवन्मुक्ति है।
15 जीवन्मुक्ति पुरुष शरीर छूटने पर सदा के लिए विदेहमुक्त होकर अपने आप नित्य सत्ता में स्थिर रहता है।
16 पारख एवं परख प्रमाण ही सर्वोपरि है। प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्दादि सारे प्रमाण स्वतः मान्य नहीं जब तक परख की कसौटी पर उन्हें कस न लिया गया हो ।
17 कोई पुस्तक स्वतः प्रमाण नहीं। जो कारण कार्य व्यवस्था एवं प्रकृति के अनुकूल तथा विवेक सम्मत हो वही बात माननीय हैं।
18 दैवीय आकाशवाणी, चमत्कार, करामात, सृष्टिक्रम विरुद्ध बातें आदि मानव को बेवकूफ बनाने के लिए कुछ चतुर लोगों द्वारा रचेे गये जाल हैं।
19 कल्पित देवयोनि, भूत-प्रेत योनि तथा इस प्रकार के माने गये अदृश्य वायव्य योनियां केवल मनुष्यों के भ्रम एवं अज्ञान हैं।
20 झाड़-फूंक, मंत्र-तंत्र-यंत्र, टोना-टोटका, पुत्राधनादि के लिए आशीर्वाद, शाप, शकुन-अपशकुन, दिशाशूल, ग्रह का टेढ़ा होना, उन्हें पूजा करके शांत करना आदि --लोगों की जालसाजियां, भ्रम एवं धोखे हैं।
21 जड़, मूर्ति, चित्रा, टोपी, गादी, किताब, समाधि आदि किसी भी प्रकार जड़ वस्तु की पूजा न करना अपितु माता-पिता बूढ़े-बड़े एवं संत.गुरु की ही पूजा तथा सत्कार करना।
22 संसार के नर-नारी ही देवी-देवता हैं, आत्मा ही परमात्मा हैं तथा जीव ही शिव हैं। प्राणियों से अलग देवी-देवता तथा जीव से अलग परमात्मा खोजना एक भ्रम है।
23 मनुष्य में वातावरण एवं जलवायु के अनुसार उनके शरीरों की भिन्न बनावट हो सकती है और उनके आचार व्यवहारों में भिन्नता हो सकती है; परंतु तत्वतः मानवमा़त्रा की एक जाति है। मनुष्य अपने अच्छे-बुरे चरित्रा से ही ऊंचा-नीचा हो सकता है। कल्पित वर्ण या जातियां मिथ्या धारणा मात्रा हैं।
24 स्त्री और पुरुष एक समान कल्याण.साधना करने और कल्याण प्राप्ति के अधिकारी हैं, परंतु व्यवहार में उनकी भिन्न मर्यादाएं हैं।
25 प्राणिमात्रा के प्रति द्वेष का सर्वथा त्यागकर अपने हृदय में प्रेम का पूर्ण प्रकाश होना ही स्वर्ग सुख की प्राप्ति है और सब तरफ से पूर्ण अनासक्ति ही मुक्ति-सुख की प्राप्ति है।
कबीर तथा कबीर पंथ का केन्द्र अवश्य उत्तरप्रदेश रहा, परंतु कबीरपंथ का व्यापक प्रचार मध्यभारत है। वैसे उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र में कबीरपंथियों की संख्या अधिक हैं। मद्रास, असाम, बंगाल, पंजाब, ट्रावन-कोर, कोचीन, कश्मीर में कम हंै। परंतु अब इन क्षे़त्रों में भी प्रचार बढ़ता जा रहा है।
बनारस में कबीर चैरा मठ है ही, लहरतारा में दो मठ है; एक कबीरचैरा का तथा दूसरा खरसिया का है। कबीर कीर्ति मंदिर, कबीर हनुमत पुस्तकालय मंदिर, कबीर पारख मंदिर, कबीर मंदिर शिवपुरी(बनकटा) आदि। यहां कई कबीरपंथी मठ हैं। बंबई, हरिद्वार, सहारनपुर, लखनऊ, कानपुर, झांसी, खुर्जा, बुलंदशहर, अलीगढ़़, आगरा, गाजीपुर, नीमसार, अयोध्या, इलाहाबाद, पानीपत, दिल्ली आदि में कबीरपंथ के मठ हैं। कहीं-कहीं एक से अधिक हैं। बड़ौदा, अहमदाबाद, सुरत आदि एक एक शहर में कबीरपंथ के कई-कई मठ हैं। बिहार तो कबीरपंथी मठों का गढ़ है। यहां अनेक मठ बहुत सम्पन्न हैं। धनौती, विद्दूपुर, लहेजी, मानसर, फतुहा, तुर्की, रोसड़ा, पर्वता, लक्ष्मीपुर, डंगहरा, पूर्णिया, समस्तीपुर, पावा, दानापुर, दरभंगा, टाटानगर, मुजफ्फरपुर, खैरा, पटना आदि में कबीरपंथी मठ हैं। मध्यप्रदेश के कुदुरमाल, दामाखेड़ा, बुरहानपुर, रतनपुर, हटकेसर, खरसिया, बमनी, मंडला, उचेहरा, धमदा, परकोटा, कवर्धा, रायपुर, सागर, चांपा, जबलपुर, नागपुर, हरदी, भरतपुर, ग्वालियर, महासमुंद, राजनांदगांव आदि में कबीरपंथी मठ हैं। गुजरात में अहमदाबाद, अंकलेश्वर, बड़ौदा, खंभात, सुरत, नडि़याद, भड़ौच, जामनगर, राजकोट, जूनागढ़ में अनेक कबीरपंथी मठ तो हैं ही। भारत के अन्य शहरों, प्रदेशों के जिलों में, देहाती क्षे़त्रोें में कबीर पंथी मठ फैले हैं,जिनकी खोज करना एक बहुत बड़ी मेहनत, खर्च और समय का काम है। पाकिस्तान के करांची, लाहौर तथा पंजाब से लेकर गौहाटी, बंगाल, जगन्नाथपुरी एवं दक्षिणी भारत तक कबीरपंथी मठ फैले हैंै। विदोशों में ट्रीनीटाड(अमेरिका), दक्षिण अफ्रीका, फीजी, लंका, मारीशस, ब्रिटिश, गायना, डेमरारा, वर्मा, भूटान, नेपाल, फारस, काबुल और अरब में भी कबीरपंथी मठ विद्यमान हैं तथा उनका कार्यक्षेत्र सक्रिय है।
बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्तरी भारत में दस लाख कबीरपंथी बताये गये थे। तब से इन सौ(100) वर्षांें के बीच इसका प्रचार क्षेत्र बहुत ज्यादा बढ़ा है। यह ध्यान देने योग्य है कि कबीरपंथी भक्त-गृहस्थ सरकारी जनगणना के समय अपने सहज स्वभाव से अपने को हिन्दू मात्र लिखा देते हैं वे कबीरपंथी प्रायः कम लिखाते हैं। हजारों में कोई एक मुसलमान कबीरपंथी होगा, तो वह अपने को मुुसलमान लिखा देता है। कबीरपंथ के अंदर कबीरपंथ को धर्म के रूप में व्यक्त करने की व्यवस्था अभी नहीं हो पायी है। यदि सभी कबीरपंथियों की गणना हो सके तो भारत में उनकी संख्या करोडों में होंगी। मात्र गोरखपुर, इलाहाबाद तथा लखनऊ के बीच में हजारों कबीरपंथी साधु होंगे, जिनमें सत्तर प्रतिशत पारखी होंगे। गृहस्थ कबीरपंथियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
संत कबीर मार्ग, प्रीतम नगर, इलाहाबाद, (उ. प्र.) - २११०११